कम मतदान में भी मोदी की किस्मत फिर चमकेगी ?

वोट प्रतिशत नीचे गिरने का दंश

आचार्य विष्णु हरि सरस्वती

वोट प्रतिशत नीचे क्यों गिरा? क्या लोकतंत्र के प्रति लोगों में दिलचस्पी घट रही है? क्या यह राजनीतिक पार्टियों के लिए कोई खतरे की घंटी हैं? वोट प्रतिशत बढाने के सभी प्रचार और लूभावनें नारे क्यों फैल गये। बडे-बडे शहरों में भी वोट प्रतिशत क्यों नहीं बढ पाये? बडे-बडे शहरों में तो पढे-लिखे लोग रहते हैं और जिन्हें सजग और लोकतंत्र की समृद्धि के प्रतीक समझा जाता है। गांवों और छोटे कस्बों में भी वोट प्रतिशत बढा क्यो नहीं? क्या चुनाव आयोग की पाबंदियों के कारण भी कम मतदान दर्ज हुए हैं? चुनाव आयोग की कई प्रकार की पाबंदियों पर अब विचार करने की जरूरत है, जैसे वाहनों का बेरोक-टोक आवाजाही, होटलों और अन्य जगहों पर ठहरने वाले लोगों पर टूटने वाले पुलिसिया कहर भी कम मतदान के कारण है? क्या कम मतदान होना नरेन्द्र मोदी के लिए खतरे की घंटी है, क्या नरेन्द्र मोदी का चार सौ पार का सपना टूटने वाला है? क्या विपक्ष कम मतदान पर खुश होने का दावा कर सकता है? क्या लालू-मुलायम राजनीतिक धारा भी कम मतदान के दायरे में अपनी किस्मत चमकने की उम्मीद रख सकती हैं? मुस्लिम समुदाय की आक्रमक मतदान से क्या मजहबी, जातिवादी और क्षेत्रीय जमातों की किस्मत जाग सकती है? मुस्लिम बहुलतावादी क्षेत्रों में मत प्रतिशत ज्यादा होने से नरेन्द्र मोदी की किस्मत बंद होने के शोर में कितनी सच्चाई है? मुस्लिम समुदाय की तुलना में हिन्दुत्व आधारित मतदान की आक्रमकता कहां दम तोडी? क्या मोदी युग में राम लहर को इतिश्री मान लिया जाना चाहिए? क्या राम लहर अंदर ही अंदर अपना प्रभाव डाल रहा है?  क्या अगले चरणों में मतदान का प्रतिशत बढ सकता है? निश्चित तौर पर वोट प्रतिशत का गिरना बहुत ही खतरनाक है और यह लोकतंत्र के लिए बहुत ही खतरनाक संकेत है। हमारा लोकतंत्र बहुत ही जींवंत है और प्रगतिशील भी है, इसकी आंच किसी भी कीमत पर धीमी नहीं होनी चाहिए।

नरेन्द्र मोदी की छबि करिश्माई है। 2014 में उनके पक्ष में लहर थी, जोश था और आक्रमता भी थी। फिर भी उन्हें प्रधानमंत्री बनने और भाजपा के सत्ता में आने की उम्मीद लोग नहीं देख रहे थे। नरेन्द्र मोदी पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आये। 2014 की तुलना में 2019 में उनकी लहर की आंच थोडी धीमी थी। फिर भी 2014 की तुलना में और अधिक बहुमत के साथ वापसी की थी, तीन सौ का आंकडा भी पार किया था। 2024 में भी नरेन्द्र मोदी फिर एक बार करिश्मा कर सकते हैं। एक तर्क यह भी है कि विपक्ष बहुत ही कमजोर है, इसी कारण नरेन्द्र मोदी का हिन्दुत्व लहर आक्रकता के साथ नहीं बह रहा है। लेकिन नरेन्द्र मोदी कम मतदान के बीच में भी एक बार फिर करिश्मा कर सकते हैं और लगातार तीसरी बार सत्ता में आ सकते हैं। यह तर्क तब तक प्रभावशाली रहेगा जब तक चुनाव परिणाम नहीं आ जाते हैं।

प्रथम चरण के मतदान के दौरान सिर्फ दो ही प्रदेश है जहां पर संतोषजनक मतदान हुए हैं। पहला त्रिपुरा है और दूसरा पश्चिम बंगाल है। दोनों राज्यों में कभी कम्युनिस्टों की सरकार हुआ करती थी और कम्युनिस्ट दावे करते थे कि उनके राज्यों में जन जागरूकता की पाठशाला हमेशा चलती रहती है और उनके वोटर बहुत ही गंभीर हैं, जनसंघर्ष चलता रहता है। लेकिन इन दोनों राज्यों से कम्युनिस्टों का संहार हो चुका है, उनकी कब्र खुद गयी, इन दोनों राज्यों में कम्युनिस्ट विरोधी राजनीतिक धारा का उदय हुआ और हवा बह गयी। त्रिपुरा में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है जबकि पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट विरोधी ममता बनर्जी की सरकार है। राजनीति प्रेरक्षक यह मानते हैं कि त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल में मतदान प्रतिशत के बढने से कम्युनिस्टों या फिर कांग्रेस को कोई लाभ नहीं होने वाला है। त्रिपुरा में भारतीय जनता पार्टी की स्थिति बहुत ही अच्छी है, कम्युनिस्ट यहां पर बहुत ही कमजोर हैं। जहां पर पश्चिम बंगाल का प्रश्न है तो वहां पर बढे हुए मतदान से कम्युनिस्ट या कांग्रेस को खुश होने की जरूरत नहीं है। क्योंकि पश्चिम बंगाल में मुकाबला ममता बनर्जी या फिर कम्युनिस्ट पार्टी या कांग्रेस के बीच नहीं है बल्कि मुकाबला ममता बनर्जी और भाजपा के बीच है।

 पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में मतदान प्रतिशत ठीकठाक रहने का अर्थ क्या है और इसके पीछे कारण क्या है? सबसे बडी बात यह है कि इन दोनों प्रदेशों में चुनाव प्रचार और चुनावी संघर्ष बहुत ही जींवत है, कांटेदार है और आक्रामक भी है। खासकर पश्चिम बंगाल की चुनावी स्थिति बहुत ही खतरनाक है। जहां पर मुकाबला कांटेदार रहता है वहां पर मतदान प्रतिशत का बढना जरूरी हो जाता है। ऐसे भी पश्चिम बंगाल में अफवाहों का बाजार फैलता है, विदेशी ताकते सक्रिय रहती हैं। क्या यह सही नहीं है कि पश्चिम बंगाल में रोहिंग्या और बांग्लादेशी मुसलमानों की घुसपैठ और संरक्षण का प्रश्न चुनाव के दौरान तेज हुआ है। ममता बनर्जी सरकार पर भाजपा का आरोप है कि उसने रोहिंग्या और बांग्लादेशी मुसलमानों को संरक्षण देकर बसाया है, इस कारण पश्चिम बंगाल में जनसंख्या अनुपात तेजी के साथ बदला है और पश्चिम बंगाल के कई जिले रोहिंग्या-बांग्लादेशी मुसलमान बहुल हो गये हैं। इधर भाजपा ने सीएए कानून लागू कर एक सबल राष्टभक्ति का संदेश दिया है। इधर अन्य कानूनों का भी भाजपा का वायदा है। इसलिए पश्चिम बंगाल में मुस्लिम मतदाता डरे हुए हैं और आक्रमता के साथ मतदान कर रहे हैं। बांग्लादेशी और रोहिंग्या समर्थक मतदान का सीधा निशाना नरेन्द्र मोदी है, किसी न किसी प्रकार से भारत से नरेन्द्र मोदी की सरकार का संहार करना है।

सर्वाधिक मतदान प्रतिशत बिहार में गिरा है। यह बहुत ही विरोधाभाषी विषय है। बिहार में अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं की सर्वाधिक बिक्री होती है, सर्वाधिक अखबार और पत्र-पत्रिकाएं बिहार में ही पढी जाती हैं। बिहार के संबंध में एक कहावत बहुत ही प्रचलित है कि वहां पर बच्चा पैदा लेता है तो वह राजनीति शास्त्र का मास्टर बन कर पैदा लेता है। इस कहावत का अर्थ है कि बिहार के लोग राजनीति के क्षेत्र में बहुत ही तेज होते हैं। बिहार और उत्तर प्रदेश पिछडों की राजनीतिक पराकाष्ठा के प्रतीक हैं। बिहार में लालू प्रसाद यादव और उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव ने पिछडों की राजनीति की गोलबंदी की थी और इनका माई समीकरण बहुत ही प्रभावशाली रहा है। बिहार में जहां लालू अपनी उम्र और बीमारी से प्रभावहीन हैं वहीं उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव का उतराधिकारी अखिलेश यादव राजनीतिक अनुभव की कमी का मार झेल रहा है। बिहार में तेजस्वी यादव और  उत्तर प्रदेश अखिलेश यादव मतदान प्रतिशत बढाने में असफल रहे। बिहार और उत्तर प्रदेश में अगर मतदान प्रतिशत 60 से उपर जाता तो फिर चुनावी तस्वीर इनकी काफी दबंग हो सकती थी।

वास्तव में इसके पीछे कारण बेरोजगारी भी है, पलायन है और चुनाव आयोग की बेमतलब पाबंदिया भी है, इसके साथ ही साथ पुलिसिया प्रताडना भी है। बेरोजगारी की समस्या प्राय सभी प्रदेशों में है। काम की खोज में एक-दूसरे प्रदेशों में पलायन जारी रहता है। खासकर मजदूर वर्ग के लिए पलायन एक जरूरी प्रक्रिया बन गयी है। मजदूर पलायन की वजह से मतदान के अधिकार से वंचित हो जाता है। मजदूरों का वोट कहीं होता है और उनका रोजगार कहीं होता है। आर्थिक समस्या के कारण मजदूर वर्ग मतदान करने के लिए अपने गृह क्षेत्र में पहुंच भी नहीं पाता है।

यह वैश्विक दौर है। युवा वर्ग वैश्विक दुनिया के सहचर है। अठारह साल के उपर के युवा मतदान के अधिकार रखते हैं पर उनकी शिक्षा कहीं और होती रहती है जहां पर वे अपने मतदान का प्रयोग नहीं कर पाते हैं। बडी-बडी कम्पनियों में काम करने वाले फोफेशनल वर्ग के लोगों की नौकरी कहीं और मतदान क्षेत्र कहीं होता है। देश के करोडों मतदाता विदेशों में नौकरी और व्यापार कर रहे हैं। ऐसे वर्ग मतदान कैसे करेंगे? सबसे बडी बात यह है कि चुनाव आयोग वाहनों के आवाजाही पर कई प्रकार के प्रतिबंध लगा कर रखता है, जिसके कारण मतदाता अपने मतदान केन्द्रों तक नहीं पहुंच पाता है। पुलिस अवैध कमाई के लिए होटलों और अन्य पनाह स्थलों पर छापे मार कर लोगों को परेशान करती है। चुनाव आयोग को कम मतदान के विषय पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है और मतदान प्रतिशत बढाने के चाकचौबंद प्रबंध करने की भी जरूरत है। सबसे बडी बात यह है कि कम मतदान का अर्थ यह नहीं है कि नरेन्द्र मोदी फिर से सत्ता वापसी नहीं कर पायेंगे।

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