मोदी चार सौ पार इसलिए चाहते हैं

आचार्य विष्णु हरि सरस्वती

चुनाव के दौरान विपक्ष ने बड़ा ही गंभीर और विचारणीय प्रश्न खड़ा किया है कि नरेन्द्र मोदी को चार सौ सीटें क्यों चाहिए? इसका जवाब नरेन्द्र मोदी की जगह विपक्ष ने ही दे दिया। यह कहिए कि प्रश्न भी विपक्ष का उत्तर भी विपक्ष का। ऐसा बहुत ही कम होता है कि प्रश्न और उत्तर भी एक ही पक्ष दे देता है। ंविपक्ष का उत्तर क्या है? विपक्ष का केहना है कि मोदी को चार सौ सीटें इसलिए चाहिए कि वे संविधान को बदल सकें। संविधान को लेकर विपक्ष की चिंता कोई नयी नहीं है। विपक्ष के लिए संविधान तो एक बहुत ही बडा और घातक चुनावी हथियार है जिसके सहारे विपक्ष मोदी का संहार और शिकार करना चाहता है। विपक्ष का अभियान भी यही है कि संविधान खतरे में है, नरेन्द्र मोदी अगर तीसरे बार भी जीत गये और उन्हें पास चार सौ सीटें मिल गयी तो फिर संविधान का नामोनिशान मिट जायेगा और संविधान के संहार-विनाश का अर्थ देश में तानाशाही का शासन। नरेन्द्र मोदी अपने हाव-भाव से तानाशाही छाप छोड़ते हैं, ऐसा मानना देश के तथाकथित सेक्युलर जमातों, मुस्लिम जमातों और कम्युनिस्ट जमातों का है। कांग्रेस के हाथ आपातकाल के खून से रंगे होते हैं, कम्युनिस्ट ख्ुद लोकतंत्र में विश्वास नहीं करते हैं, इनकी तानाशाही चलती है, इनके आदर्श माओत्से तुंग और स्टालिन जैसे तानाशाह हैं, जबकि मुस्लिम दुनिया में मजहबी तानाशाही चलती है। ऐसे में ऐसी जमातों की परिधि में कैद विपक्ष का यह हथियार कितना घातक होगा?
 नरेन्द्र मोदी ने इस बार चार सौ पार का नारा दिया है। 2019 में तीन सौ पार का नारा दिया था, सुखद बात यह थी कि नरेन्द्र मोदी ने तीन सौ पार के नारे को सच साबित कर दिया था और लोकसभा चुनावों में लगातार दूसरी बार विजय श्री प्राप्त की थी। दस सालों के शासन को नरेन्द्र मोदी जनता के लिए सुलभ और शानदार मानते हैं, और इसी विसात पर तीसरी बार सत्ता प्राप्त करने के आकंाक्षी भी है। मोदी को चार सौ सीटें मिलेगी कि नहीं, इस पर अभी विचार करना मुश्किल है, जनता का जब त्रिनेत्र खुलता है तो फिर किसी को अर्श से फर्श पर बैठा देती है तो फिर फर्श से अर्श पर भी बैठा देती है। चार सौ से पार सीटें संविधान समाप्त करने की जगह विपक्ष की अनावश्यक रोडा, अफवाह, साजिशें को समाप्त करने, विकास और उन्नति के मार्ग को स्थायी रखने और देशद्रोहियो के दमन के लिए भी तो चाहिए। ऐसे राजनीति में सर्वश्रेष्ठ जीत की उम्मीद करना और उस पर काम करना गैर जरूरी कहां है?

सच तो यह है कि कोई भी संविधान न तो अटल होता है और न अपरिवर्तित होता है, संविधान आवश्यकता और समय के साथ परिवर्तित होता है। आधुनिक समय में इस कार्य को संविधान संशोधन का नाम दिया गया है। भारत ही नहीं बल्कि दुनिया का हर सविधान स्थानीय और अंतर्राष्टीय आवश्यकताओंके आधार पर बदलता है,संशोधित होता है, गैर जरूरी और नुकसानदायक हिस्से निकाल बाहर किये जाते हैं और अति आवश्यक मूल्यों को जोडा जाता है। भारत का संविधान भी संशोधन की परमपरा से गतिमान होता है। अब तक 130 से अधिक संशोधन हो चुके हैं, कहने का अर्थ है कि भारतीय संविधान को 130 बार से अधिक बदला गया है। इंदिरा गांधी ने तो संविधान की मूल भावना को बदल दिया था, समाजवाद शब्द और धर्मनिरपेक्षता के अतिरिक्त सिद्धांत को जोड दिया , इंदिरा गांधी की इस करतूत पर विवाद हमेशा जारी रहता है। इंदिरा गांधी द्वारा संविधान की मूल भावना के साथ की गयी छेड़छाड को सुधारने की बात भी उठती है। आजाद भारत में इंदिरा गांधी पहली तानाशाह थी, उसने भारत पर तानाशाही लादी थीे, उसने देश पर इमरजेंसी लागू की थी और मौलिक अधिकारों पर कैंची चलायी थी, लाखों लोगों को पकड़ कर जेलों में डाल दिया गया था।

इंदिरा गांधी की तुलना में नरेन्द्र मोदी की तानाशाही प्रबृति शून्य ही मानी जायेगी। नरेन्द्र मोदी अकारण और बिना मुकदमा चलाये किसी विपक्ष के नेता या फिर अपने विरोधियो को जेल भेजवाने की तानाशाही प्रबृति नहीं दिखायी है। उसने कोर्ट को ठंेंगा नहीं दिखाया है, कोर्ट की शक्ति को कम नहीं किया है, अभी भी हमारी न्यायपालिका बहुत ही सक्षम और स्वतंत्र है। सक्षम और स्वतंत्र होकर हमारी न्यायपालिका नरेन्द्र मोदी की सरकार की कमजोरियों पर बुलडोजर चलाती है, जवाब मांगती है। इलेक्टरोल बॉड का प्रसंग देख लीजिये। राजनीतिक पार्टियों की इस चंदाखोरी के मामले में न्यायपालिका ने कैसी सुनवाई की और किस प्रकार से इसे संविधान विरोधी घोषित कर दिया, यह भी स्पष्ट है। सुप्रीम कोर्ट के डंडे के सामने भारतीय स्टेट बैंक को समर्पण करना पडा और चंदा देने वालों को बेनकाब करना पडा। सोनिया गांधी, राहुल गांधी, अरविंद केजरीवाल आदि जितने भी नेताओ पर मुकदमें चल रहे हैं वे सभी भ्रष्टाचार के मुकदमें हैं, भ्रष्टचार में लिप्त अगर नेता होगा तो फिर जनता पर मुकदमा कैसे चलेगा, जनता जेल कैसे जेल जायेगी, मुकदमा तो नेता पर ही चलेगा, जेल तो नेता ही जायेंगे? क्या सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने नेशनल हैराल्ड मामले में भ्रष्टचार के आरोपी नहीं हैं, क्या केजरीवाल की सरकार ने शराब घोटाला नहीं किया है? केजरीवाल क्या शराब बेचने के लिए सत्ता में आये थे? केजरीवाल तो भ्रष्टचार मिटाने के लिए सत्ता में आये थे लेकिन खुद भ्रष्टचार में लिप्त हो गये। भ्रष्ट नेताओं को जेल भेजाने वाले और मुकदमा चलवाने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर तानाशाही का आरोप लगाना और लोकतंत्र समाप्त करने का अभियान चलाने का लाभ मिल सकता है क्या? क्या यह सही नहीं है कि भ्रष्टचारी नेता अपने बचाव में यह नहीं कह रहे हैं कि लोकतंत्र समाप्त करने के लिए हमें जेल भेजा जा रहा है। भ्रष्टचारियों की कोर्ट में निष्पक्ष सुनवाई हो रही है, जांच एजेंसियों को अपनी दक्षता दिखानी पड रही है।
संविधान पर नरेन्द्र मोदी का विचार भी स्पष्ट है। नरेन्द्र मोदी ने कह दिया है कि संविधान का कोई बाल बांका भी नहीं कर सकता है, संविधान समाप्त करने की कोई सोच भी नहीं सकता है, भारत का संविधान सुरक्षित हाथो में है, गतिशील भी है और जनभावनाओं का प्रतिनिधित्व भी करता है।े संविधान पर कुछ विचार और तथ्य यहां पर देखा जाना चाहिए। अटल बिहारी वाजपेयी के समय में भी संविधान की कसौटी परखी गयी थी उस पर एक आयोग बनाया गया था पर संविधान को बदला नहीं गया, संविधान की मूल भावना को समाप्त नहीं किया गया। नरेन्द्र मोदी ने भी संविधान की भावना को आधुनिक समय के अनुसार परखने के लिए आयोग बनाये पर किसी आयोग ने प्रतिकूल सिफारिशेंनहीं की है। आयोग का नेतृत्व करने वाला व्यक्ति सरकार के विचारों को ही प्रतिनिधित्व करता है और सरकार के विचारों को ही स्थापित करता है। अगर नरेन्द्र मोदी की संविधान विरोधी भावनाएं होती तो वे अपने द्वारा गठित आयोगों और कमिटियों से संविधान विरोधी सिफारिशें जरूर कराते। भारतीय संविधान को लेकर भीभ राव अंबेडकर की एक विरोधी भावना भी चर्चित रही है। अबंडेकर खुद भारतीय संविधान को जलाना चाहते थे उनका यह विचार काफी प्रभावशाली रहा है। भीभ राव अंबेडकर भारतीय संविधान को क्यों जलाना चाहते थे? इस पर संविधान विशेषज्ञ और भारतीय संविधान पर दो प्रमुख पुस्तकें लिखने वाले लक्ष्मीनारायण भाला कहते हैं कि भीभराव अंबेडकर नेहरू के कारण ऐसा करना चाहते थे, नेहरू ने दबाव देकर संविधान मे बहुत सारी अवधारणाएं ऐसी डलवा दी थी जिसे अंबेडकर पंसद नहीं करते थे। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि नेहरू के शासन को अंबेडकर संविधान की मूल भावना के खिलाफ मानते थे।
राजनीति में सर्वश्रेष्ठ जीत की आकांक्षा पालना गलत नहीं है, राजनीति में विरोधियांें का समूल नाश करने की भावना रखना गलत नहीं है। कोई राजनीतिज्ञ अधूरे बहुमत की आकांक्ष नहीं रखता है, अपनी लूढी-लगडी सरकार नहीं चाहता है। हर पार्टी और हर राजनीतिज्ञ विशाल बहुमत चाहते हैं, मजबूत सरकार चाहते हैं। जनता अगर चाहेगी तो मोदी को चार सौ से पार सीटें दे सकती है और नहीं भी दे सकती है। इस प्रश्न पर विपक्ष को बहुत ज्यादा लाभ होने की उम्मीद नहीं है।

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